बुधवार, 21 अगस्त 2013

श्रीमद भगवत गीता श्लोक ३६ वां और उससे आगे

श्रीमद भगवत गीता श्लोक ३६ वां और उससे आगे 

(३ ६ )तुम्हारे वैरी लोग तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुम्हारी बहुत बुराई करेंगे।तुम्हारे लिए इससे दुखदाई और क्या होगा। 

भगवान  राम ने वाल्मीकि  रामायण में कहा है -जनता जो कह रही है लोक जो कह रहा है मैं उसकी चिंता करता हूँ आज के नेताओं की और बात है। लोग यही मानेंगे तुमको उर्वशी ने जो शाप दे दिया था तुम उसकी वजह से ही नपुंसक हो गए (सन्दर्भ है उर्वशी अर्जुन पर मोहित हो उसके शयन कक्ष में चली आई थी -अर्जुन ने कहा -माँ तुम क्यों चली आईं  मुझे बुला लिया होता। उर्वशी ने कहा अप्सरा किसी की भी माँ नहीं होती। अर्जुन ने कहा तुम तो हमारे पूर्वजों के निकट आई हो इसलिए हमारी तो माँ ही हो गईं। उर्वशी ने अपमानित हो अर्जुन को शाप दिया -जा तू नपुंसक हो जा। नारद  आदि देवों  ने उस शाप की अवधि को कम करवाके एक वर्ष का करवा दिया था। )तुम्हारे निंदक तुम्हारे दुश्मन आदि सब मिलकर बहुत सी न बोलने वाली भी बातें कहेंगे उस अपमान और कष्ट से बढ़कर तुम्हारे लिए कुछ भी तो न होगा अर्जुन। 

(३ ७ )हे अर्जुन अगर तू मारा गया तो स्वर्ग प्राप्त करेगा। और विजयी होकर तू सारे साम्राज्य सकल धरा का सुख भोगेगा। इसलिए हे कौन्तेय तुम निश्चय करके युद्ध के लिए खड़े हो जाओ। 

वो लोग तो निश्चित तौर पर हारेंगे ही क्योंकि अधर्म के साथ है। इसलिए तू धर्म युद्ध के लिए खड़ा  हो जा। तू क्षत्राणी का पुत्र है जो इसी दिन के लिए पुत्र पैदा करती है कि एक दिन वह अन्याय के सामने  खड़ा होगा। अधर्म को हटाएगा। धर्म की रक्षार्थ खड़ा होगा। इसलिए भगवान् अर्जुन का अहंकार लगातार  जगा रहे हैं। 

(३ ८ )सुख- दुःख, लाभ -हानि ,जीत -हार की चिंता न करके मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्य -कर्म करना चाहिए। ऐसे भाव से कर्म करने पर मनुष्य को पाप नहीं लगता है। 

अर्जुन पाप से बहुत डरते थे इसीलिए भगवान् पाप के प्रति उनके दुःख को कम करते हुए कह रहे हैं -अगर तुम सुख और दुःख दोनों को एक समान कर दो तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा। जितने भी सांसारिक सुख हैं उनको एक तरफ रख दो। और दुःख से भी मत घबराओ। यदि व्यक्ति सुख और दुःख को बराबर समझ ले तो युद्ध में वह किसी भी पाप को प्राप्त नहीं होता है। जब तक वह किसी नुक्सान से घबराता रहेगा,लाभ  हानि के चक्कर में पड़ा रहेगा  तब तक वह पाप  और पुण्य से बच  नहीं पायेगा। इसलिए हे अर्जुन पुण्य और पाप ,लाभ - हानि ,जय -पराजय दोनों का मोह छोड़ना पड़ेगा। फिर पाप नहीं लगेगा। सुख और दुःख मन को विचलित करने वाले हैं। द्वंद्व पैदा करते हैं। जल में चीनी मिलाने से उसकी शुद्धता नष्ट हो जाती है फिर न तो उससे प्यास बुझा सकते हो न तन को शुद्ध कर सकते हो। 

( ३ ९ )हे पार्थ ,मैं ने सांख्य  मत का यह ज्ञान तुमसे कहा ,अब कर्म योग का विषय सुनो ,जिस ज्ञान से युक्त होकर तुम कर्म के बंधन से मुक्त हो जाओगे। 

अब यहाँ से आगे भगवान अर्जुन को कर्म योग के बारे में बताते हैं।इस ज्ञान  के द्वारा तू बड़े से बड़े बंधन से ऊपर उठ जाएगा ,उसे नष्ट कर देगा। 

(४ ० )कर्म योग में आरम्भ अर्थात बीज का नाश ही नहीं होता तथा उलटा फल भी नहीं मिलता है। इस निष्काम कर्मयोग रुपी धर्म का थोड़ा सा अभ्यास भी (जन्म -मरणरुपी )महान भय से रक्षा करता है। 

सन्देश यहाँ यह है जब अच्छे मार्ग पे चलने की शुरुआत  हो जाती है उसका कभी भी उलटा परिणाम नहीं होता है।यह अच्छाई का मार्ग इतना विलक्षण है यदि थोड़ा सा भी व्यक्ति इसका आश्रय कर ले तो यह महान भय और नैराश्य से मनुष्य की रक्षा कर लेता है। इस कर्म योग के मार्ग पे चलना शुरू कर दिया तो उसका  फिर कभी नाश नहीं होगा। परमात्मा की तरफ जाने वाले किसी भी मार्ग पर आरम्भ का अंत नहीं होता है। भगवान् की तरफ चलने की जिसने शुरुआत कर दी उस शुरुआत का कभी  भी अंत नहीं होगा। अध्यात्म का प्रारम्भ व्यक्ति की हर प्रकार की समस्याओं का अंत कर देता है। 

(४ १ )हे अर्जुन ,कर्म योगी केवल ईश्वर प्राप्ति का ही दृढ़  निश्चय करता है ,परन्तु सकाम मनुष्यों की इच्छाएं अनेक और अनंत होती हैं। 

(४२ )हे पार्थ सकाम अविवेकी जन ,जिन्हें वेद  की मधुर संगीतमयी वाणी से प्रेम है ,(वेद को यथार्थ रूप से नहीं समझने के कारण )ऐसा समझते हैं कि वेद में भोगों के सिवाय और कुछ है ही नहीं। 

(४ ३ )वे समझते हैं वेद कामनाओं से युक्त ,स्वर्ग को ही श्रेष्ठ मानने वाले ,भोग और धन को प्राप्त कराने  वाले अनेक धार्मिक संस्कारों को ही बाताते हैं,जो पुनर्जन्म रुपी कर्म फल को देने वाले होते हैं। 

(४४ )भोग और ऐश्वर्य ने जिनका चित्त हर लिया है ,ऐसे व्यक्ति के अंत :करण  में भगवत प्राप्ति का दृढ़  निश्चय नहीं होता है और वे परमात्मा का ध्यान नहीं कर सकते। 

( ४ ५ )हे अर्जुन ,वेदों (के कर्म काण्ड )का विषय प्रकृति के तीन गुणों से सम्बंधित है ; तुम त्रिगुणातीत ,निर्द्वन्द्व ,परमात्मा में स्थित ,योगक्षेम न चाहने वाले और आत्मपरायण बनो। 

इस कर्म योग में संकल्प का बड़ा महत्व है जो ठान लिया सो ठान लिया। एन्द्रिक भोगों ने जिनकी बुद्धि का अपहरण कर लिया है जिनके मन में भोग की कामना है वह भोग वाली वस्तुओं को ढूंढ ही लेते हैं। उनकी बुद्धि निश्चयात्मक नहीं होती है। वेद वाक्यों में वे रूचि तो रखते हैं लेकिन उन्हीं श्लोकों में उनकी रूचि होती है जो भोग का रास्ता बतलाते हैं। यहाँ लगता है गीता वेदों के खिलाफ है लेकिन ऐसा है नहीं। भोग ऐसे व्यक्तियों की बुद्धि हर लेते हैं। अध्यात्म के मार्ग में तो अपनी बुद्धि बस एक परमात्मा में जोड़नी होती है। भोगवादी लोगों की बुद्धि अनंत शाखाओं वाली होती है। वे तो तप भी इसीलिए करते हैं कि तप भंग करने के लिए अप्सराएं आयेंगी। 

वेद तीनों गुणों की ही बात कर रहे हैं वहीँ तक सीमित हैं। मोक्ष की प्राप्ति तब होगी जब हम इन तीनों गुणों से ऊपर उठेंगे। हे अर्जुन तू इन तीनों गुणों से ऊपर  उठ निर्द्वन्द्व हो जा। जो नित्य परमात्मा है उसमें स्थिर हो जा। वेदों को तुम छोड़ो। तुम्हारी ज़रुरत मैं पूरी करूंगा और उस ज़रुरत की चीज़ की हिफाज़त (योगक्षेम )भी करूंगा। तू अपनी तरफ से योग क्षेम को चाहने वाला न बन। 

ॐ शान्ति। 





  

  

4 टिप्‍पणियां:

रविकर ने कहा…

गीता के सन्देश से, चले बचाने देश |
आखिर लेने क्यूँ चले, मोहन से विद्वेष |

मोहन से विद्वेष, दिखी मुद्रा भी भ्रामक |
उठापटक का दौर, मौन-मन रहता अहमक |

फ़ाइल गुम करवाय, रहा करवाय सुबीता |
रिक्त हो रहा कोष, दुशासन कोसे गीता |

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत सुंदर उपदेश, शुभकामनाएं.

रामराम.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत सुन्दर कथन ... तू वेड के तीनों गुणों से ऊपर उठ जा ... मेरी शरण में आ जा ...

आत्मिक भाव को सझने के लिए .... खुद से भी मुक्त होना पड़ेगा ... परम आनंद ...राम राम जी ...

Anita ने कहा…

सुख- दुःख, लाभ -हानि ,जीत -हार की चिंता न करके मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्य -कर्म करना चाहिए। ऐसे भाव से कर्म करने पर मनुष्य को पाप नहीं लगता है।

कितना साहस देती पोस्ट !